मक्का की खेती (Makka Ki Kheti) कैसे करें पूरी जानकारी | Makka Ki Kheti Kaise Karen
परिचय-
मक्का की उत्पत्ति तथा इतिहास (Origin and history of maize)-
Makka Ki Kheti (Maize Cultivation):
जलवायु(Climate)-
मक्का की खेती के लिए भूमि का चुनाव (Soil Selection for Maize Farming)-
खेत की तैयारी (Soil Preparation for Maize Cultivation)-
पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा अन्य दो या तीन जुताई या देशी हल या कल्टीवेटर द्वारा करनी चाहिए | खेत की जुताई के समय खेत में पाटा लगाकर समतल कर देना चाहिए और खेत की नमी को बनाए रखने के लिए कम से कम समय में जुताई करके तुरंत पाटा लगाना लाभदायक है |और खेत की मिट्टी के ढ़ेले तोड़ कर भुरभुरापन व वायु संचार ठीक कर दिया जाये |
मक्का की उन्नत किस्में (Improved Varieties of Maize)
मक्के की बीज की मात्रा (Maize Seed Quantity)-
मक्का की बुवाई का समय (Maize Sowing Time )-
•खरीफ मक्का बुवाई:-जून से जुलाई तक
देशी मक्का : बुवाई जुलाई के प्रथम सप्ताह तक हो देना चाहिए |
संकुल/संकर मक्का : 20 जून तक अवश्य बुवाई कर देनी चाहिए |
•रबी मक्का की बुवाई:-अक्टूबर से नबम्वर तक
•जायद मक्का की बुवाई:-फरवरी से मार्च तक
बीज उपचार (Seed Treatment) -
बीज बोने से पूर्व यदि शोधित न किया गया हो तो (1 किलोग्राम बीज के लिए थीरम 2.5 ग्राम या 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम) से बोने से पहले शोधित कर लें |
भूमि शोधन तथा जिंक का प्रयोग:-
जिन क्षेत्रों में दीमक का प्रकोप होता है वहां आखिरी जुताई पर क्लोरोपाइरीफास 20 ई. सी. की 2.5 लीटर का 5 लीटर में घोलकर 20 किलोग्राम बालू में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई से पहले मिट्टी में मिला दें | जिंक तत्व की कमी के कारण पत्तियों के नस के दोनों ओर सफेद लंबी धारियां पड़ जाती हैं | जिन क्षेत्रों में गत वर्ष ऐसे लक्षण दिखाई दिए हो उनमें अंतिम जुताई के साथ 20 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में मिलाकर बीज बोना चाहिए | इसका प्रयोग फास्फोरस उर्वरक के साथ मिलाकर ना किया जाए |
बुवाई की विधि ( Maize Sowing Method)-
मक्का की बुवाई हल के पीछे कूंडों में 3.5 सेमी. गहराई पर करें |
लाइन से लाइन की दूरी और पौधे से पौधे की दूरी का अन्तरण-
खरीफ में :- 60 × 25 सेमी.
जायद में देशी :- 30 × 15-20 सेमी.
संकर / संकुल :- 45 × 15-20 सेमी.
खादों का संतुलित प्रयोग ( balanced use of fertilizers):-
मक्का की फसल की अच्छी पैदावार लेने के लिए सभी मुख्य एवं सूक्ष्म तत्वों की आवश्यकता होती है |किसी भी तत्व को भूमि में देने से पहले मृदा की जांच करना आवश्यक है भारतीय मृदा में नाइट्रोजन , फास्फोरस तथा पोटाश के अतिरिक्त कुछ लघु तत्वों जैसे -लोहा ,जस्ता आदि की कुछ क्षेत्रों में कमी हैं |
मक्का की संकर और संकुल जाति के लिए 150 किलोग्राम नत्रजन, 75 किलोग्राम फास्फोरस एवं 60 किलोग्राम पोटाश की प्रति हेक्टेयर आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति हेतु 235 किलोग्राम एन.पी.के. 12: 32 :16 तथा 38 किलोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश एवं 265 किलोग्राम यूरिया का प्रयोग करें |
संपूर्ण एन.पी.के. एवं म्यूरेट ऑफ़ पोटाश बुवाई से पहले कुडों में तथा यूरिया दो बार में खड़ी फसल में प्रयोग करें | परंतु देसी प्रजातियों हेतु उपरोक्त मात्रा का आधा ही प्रयोग करें | विन्ध्य एवं बुन्देलखंड क्षेत्रों में नत्रजन की मात्रा 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रयोग करें |
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सिंचाई (irrigation)-
अधिक व कम पानी दोनों ही हानिकारक हैं पौधे मुरझाने नहीं चाहिए | फु्ल व बाल निकलते समय नमी रहना अति आवश्यक है जल निकास का अच्छा प्रबंध होना चाहिए |
निराई,खरपतवार नियंत्रण (Weed Control):-
मक्का की खेती में निराई- गुड़ाई का अधिक महत्व है | निराई गुड़ाई द्वारा खरपतवार नियंत्रण के साथ ही ऑक्सीजन का संचार होता है जिससे वह दूर तक फैल कर भोज्य पदार्थ को एकत्र कर पौधों को देती है | पहली निराई जमाव के 15-20 दिन बाद कर देना चाहिए और दूसरी निराई 35 से 40 दिन बाद कर देना चाहिए |
कटाई-मड़ाई:-
फसल पकने पर भुट्टों को ढंकने वाली पत्तियां पीडी पड़ने लगती हैं इस अवस्था पर कटाई करनी चाहिए | भुट्टों की तोड़ाई करके उसके डंठल को छीलकर धूप में सूखाकर हाथ या मशीन द्वारा दाना निकाल देना चाहिए |
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कीट व रोग नियंत्रण :-
पहचान-इस कीट की सूंड़ियां तनों में छेद कर के अंदर ही खाती रहती हैं | जिससे मृतगोभ बनता है और हवा चलने पर तना बीच से टूट जाता है | पौधों की बढ़वार रुक जाती है |
1-इसकी रोकथाम हेतु बुवाई के 20 से 25 दिन बाद कार्बोफ्युरान 3% ग्रेन्युल 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें |
2- बुवाई के 2.5 तथा 7 सप्ताह के बाद निम्न में से किसी एक रसायन का छिड़काव करना चाहिए-
(अ) कार्बेरिल 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण 1.5 किलोग्राम/हे.
(ब) फेनिट्रोथियान 50 ई.सी. 500 से 700 मिली./हे.
(स) क्यूनालफास 25 ई.सी. 2 लीटर/हे.
(द) इन्डोसल्फान 35 ई.सी. 1.5 लीटर/हे.
पहचान: इस कीट की इल्लियां होती है वह पत्ती के दोनों किनारों को रेशम जैसे सूत से लपेट कर अंदर से खाती है |
उपचार: उपर्युक्त कीटनाशक रसायनों में 2अ से 2द तक किसी एक का प्रयोग करना चाहिए |
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पहचान-इस रोग में पत्तियों पर पीली धारियां पड़ जाती हैं |और पत्तियों के नीचे की सतह पर सफेद रूई के समान फफूंदी दिखाई देती है | यह धब्बे बाद में गहरे अथवा लाल भूरे पड़ जाते हैं रोगी पौधों में भुट्टा कम बनते हैं यह बनते ही नहीं है |
उपचार-इस रोग की रोकथाम हेतु जिंक मैग्नीज कार्बमेट या जीरम 80 प्रतिशत 2 किलोग्राम अथवा जीरम 27 प्रतिशत के 3 लीटर हेक्टेयर की दर से छिड़काव आवश्यक पानी की मात्रा में घोलकर करना चाहिए |
पहचान - इस रोग में पत्तियों पर बड़े लंबे अथवा कुछ अंडाकार भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं | रोग के उग्र होने पर पत्तियां झुलस कर सूख जाती हैं |
उपचार : इसकी रोकथाम हेतु जिनेब या जिंक मैग्नीज कार्बमेट 2 किलोग्राम अथवा जीरम 80 प्रतिशत 2 लीटर हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए |
पहचान-यह रोग अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में लगता है इसमें तने की पोरियों पर जलीय धब्बे दिखाई देते हैं | जो शीघ्र ही सड़ने लगते हैं और उसमें दुर्गंध आती है पत्तियां पीली पढड़कर सूख जाती हैं |
उपचार:-रोग दिखाई देने पर 15 ग्राम स्ट्रेप्टोसाईक्लीन अथवा 60 ग्राम एग्रोमाइसीन प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से अधिक लाभ होता है |
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